मध्य प्रदेश की प्राचीन नगर उज्जैन में स्थित श्री महाकालेश्र्वर मंदिर भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह विश्व प्रसिद्ध महाशक्तिपीठ पवित्र नदी क्षीप्रा के तट पर विराजमान है। माना जाता है कि देवी सती के लबों के ऊपरी भाग के इस स्थान पर गिरने से इस मंदिर की महाशक्तिपीठ के तौर पर व्याख्या हुई। एतिहासिक तौर पर उज्जैन को अवंतिका और उज्जैयिनी के नाम से भी जाना जाता है। हिंदू धर्म के कई ग्रंथों, पुराणों और महाकवि कालिदास की रचनाओं में शिव के इस प्राचीन मंदिर का उल्लेख मिलता है।
शिव पुराण के अनुसार इस मंदिर की स्थापना द्वापर युग में हुई थी। इस मंदिर की अनूठी बात यह है कि यहाँ भगवान शिव स्वयंभू, दक्षिण मुखी होकर विराजमान हैं। ऐसी मान्यता है कि महाकाल के दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। मंदिर के शिखर के ठीक ऊपर से कर्क रेखा गुज़रती है। इसीलिए इसे पृथ्वी का नाभि स्थल भी कहा जाता है।
यह भव्य मंदिर मुख्य तीन भागों में विभाजित है। Mahakal Temple in Ujjain के ऊपरी भाग में नाग चंद्रेश्वर मंदिर है। मंदिर के गर्भगृह तक पहुंचने के लिए सीढ़ीदार रास्ता है। जहाँ महाकाल मुख्य ज्योतिर्लिंग के रूप में विराजमान हैं। यहाँ पर भगवान शिव के साथ ही गणेश, कार्तिकेय और माता पार्वती की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। मंदिर के गर्भगृह के ठीक ऊपर एक दूसरा कक्ष है, जिसमें ओंकारेश्वर शिवलिंग स्थापित है। मंदिर से सटा एक छोटा-सा जलस्रोत्र है जिसे कोटितीर्थ कहा जाता है।
भोले बाबा यूँ कहलाये महाकाल
प्राचीन काल में उज्जैयिनी के राजा चंद्रसेन शिव के परम भक्त थे। एक दिन श्रिकर नामक पाँच वर्षिय गोप बालक ने राजा को शिव पूजन करते हुए देख लिया। राजा को भगवान शिव की आराधना में लीन देख, बालक के मन में भी शिव जी की पूजा करने की जिज्ञासा हुई। जब वह शिव पूजन के लिए सामग्री का साधन जुटा पाने में असमर्थ रहा तो उसने रास्ते से एक पत्थर का टुकड़ा उठा लिया और घर आकर वही पत्थर की शिवलिंग रुप में स्थापना कर पुष्प, चंदन आदि से परम श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करने लगा। बालक की माता ने जब भोजन करने के लिए बुलाया तो शिव का नन्हा अनन्य भक्त शिव पूजन को छोड़ कर भोजन करने के लिए भी तैयार नहीं हुआ। इस बात पर क्रोधित होकर उनकी माता ने शिवलिंग रूपी वह पत्थर का टुकड़ा दूर फेंक दिया। माता के ऐसे व्यवहार से बालक के मन को बड़ा आघात पहुँचा और वह रो रो कर भगवान शिव को पुकारने लगा और वहीं बेसुध हो गिर पड़ा।
भगवान शिव अपने प्रति बालक की निश्छल आस्था और प्रेम को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। जब बालक ने चेतना में आकर अपने नेत्र खोले तो वह अपने समक्ष एक बहुत ही भव्य और अतिविशाल स्वर्ण और रत्नों से बना हुआ मंदिर देख कर आश्चर्यचकित रह गया। उस मंदिर के अंदर एक बहुत ही प्रकाशपूर्ण, भास्वर, तेजस्वी ज्योर्तिलिंग को पाकर वह आनंद विभोर होकर भगवान शिव की उपासना में जुट गया। जब इस चमत्कार की खबर राजा चंद्रसेन को लगी तो उन्होनें ने भी
मंदिर में पहुंचकर भगवान शिव के प्रति बालक की अनन्य भक्ति और निष्ठा की खूब सराहना की। धीरे-धीरे वहां बड़ी भीड़ जुट गई। इतने में उस स्थान पर हनुमान जी प्रकट हो गए। उन्होंने कहा, ‘‘मनुष्यो!
भगवान शंकर शीघ्र फल देने वाले देवताओं में सर्वप्रथम हैं। इस बालक की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्होंने इसे ऐसा फल प्रदान किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि करोड़ों जन्मों की तपस्या से भी प्राप्त नहीं कर पाते।’’द्वापरयुग में इसी गोप बालक की आठवीं पीड़ी के पुरुष के रुप में धर्मात्मा नंद गोप जन्म लेंगे। जिनके घर में भगवान विष्णु कृष्णा अवतार में इस धरती पर लीला रचेंगे। इतना कथन कहते ही हनुमान जी अंतर्ध्यान हो गये। उस स्थान पर नियम से भगवान शिव की आराधना करते हुए अंत में श्रीकर गोप और राजा चंद्रसेन शिवधाम को चले गए। तब से यह स्थान श्री महाकालेश्वर धाम के नाम से जगत प्रसिद्ध है।
इतिहास में की गई थी मंदिर को विध्वंस करने की कोशिश
1234-1235 ई. के दौरान दिल्ली के सुल्तान शम्सुद्दीन इल्तुतमिश द्वारा उज्जैन पर हमले के दौरान इस मंदिर को विध्वंस कर दिया गया। एतिहासिक तथ्यों के अनुसार जलधारी चुरा ली गई थी और पवित्र ज्योतिर्लिंग को कोटि तीर्थ कुंड में विसर्जित कर दिया गया था। इस घटना के पश्चात मराठा शासकों के आधिपत्य के अंतर्गत महाकालेश्वर मंदिर का पुनिर्नर्माण और ज्योतिर्लिंग की पुनर्प्रतिष्ठा तथा सिंहस्थ पर्व स्नान की स्थापना की गई। आगे चलकर राजा भोज ने इस मंदिर का विस्तार कराया। इस तरह से उज्जैन के खोये हुए गौरव को पुन: निर्मित किया गया।