जन्मभूमि 'स्वर्ग' से बढ़कर होती है। गांव व खलियान हर किसी के जहन में बसे होते हैं, लेकिन जब जन्म भूमि से ही पलायन करना पड़े या वहां से खदेड़ दिए जाएं तो इस दुख-दर्द को ऐसा कोई भी नही होगा जो महसूस करना चाहेगा या ऐसा सोचता होगा। लेकिन आज हम आपको उन लोगों के ऐसे असहनीय दर्द को बताना चाहेंगे।
कश्मीर, जहां के नाम से ही स्वर्ग का एहसास होने लग जाता है, जहां ऐसा लगता है कि खुदा ने मानो सारी खूबसूरती इसी क्षेत्र को दे दी हो। लेकिन इस खूबसूरती पर ना जाने किसकी नजर लगी। कश्मीरी लोगों को व खासकर कश्मीरी पंडितों की तकलीफों, दुखों को जब आप सुनोगे तो शायद जुल्म और अत्याचार जैसे शब्द भी तुच्छ लगने लगेंगे। कश्मीर के मूल निवासी, अपनी ही जन्म भूमि के लिए आज भी अपने ही देश में दर-दर भटकने को मजबूर हैं और लगभग पिछले 30 वर्षों में सियासत के शिकार हो रखे हैं। 30 वर्ष पहले जो जुल्म, जो अत्याचार उनके साथ हुआ वह आज भी उनके जेहन में बसा हुआ है। आज हम उन्हीं कश्मीर पंडितों का 30 वर्ष पुराने दर्द को आप सबके बीच रखेंगे।
कश्मीर के क्षेत्र में एकमात्र मूल हिंदू निवासी कश्मीरी पंडित है। वर्ष 1947 तक कश्मीर में हिंदू पंडितों की आबादी 15% थी जो दंगों, जुल्मों व अत्याचारों के कारण घटकर वर्ष 1981 तक महज 5% रह गई। जैसे-जैसे समय बढ़ता गया वैसे ही कश्मीर में हिंदू अधिकारियों, बुद्धिजीवियों, कारोबारियों और दूसरे बड़े लोगों पर जुर्म बड़े पैमाने पर होने लगा।
करीब 4 लाख कश्मीरी पंडितों को अपना घर छोड़ने पर मजबूर किया गया, हजारों पंडितों की निर्मम तरीके से हत्या की गई। 1947 में बंटवारे के बाद से यह सबसे बड़ा पलायन था। जिस पर किसी भी बुद्धिजीवी वर्ग, मानवाधिकार व सामाजिक संगठन जैसे वर्ग ने आंसू बहाना तो दूर की बात एक शब्द तक नहीं कहा। पूरा देश असहाय होकर कश्मीरी पंडितों का विस्थापन देखता रहा।
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1990 के शरद ऋतु आते-आते पूरी कश्मीर घाटी में आतंकवादियों का बोलबाला था। राज्य सरकार अपने सभी जिम्मेदारियों से भाग खड़ी हुई और किसी भी प्रकार का कोई प्रशासन नहीं रहा। आतंकियों के फरमान ने पूरी कश्मीर घाटी को अपने कब्जे में ले लिया, अब ऐसा लगने लगा कि भारतीय होना सबसे बड़ा धब्बा था।
4 जनवरी 1990 को 'आफताब' समाचार पत्र में हिजबुल मुजाहिदीन ने प्रेस जारी करके सभी हिंदुओं को कश्मीर घाटी छोड़ने के लिए कहा व एक अन्य समाचार पत्र 'अल्सफा' में भी यही प्रेस विज्ञप्ति छपी। जल्द ही यही नोटिस कश्मीरी पंडितों के घरों के दरवाजे पर चिपका दिए गए। 4 जनवरी 1990 की उस काली रात को ऐसा लग रहा था कि जैसे मानो अंधेरे ने पूरी कश्मीर घाटी को अपने आगोश में ले लिया। कश्मीर के हर कोने, गली, नुक्कड़, सड़क, बाजार व हरगांव से ऐसी आवाजें बुलंद होने लग गई जो पंडितों के लिए मौत का संदेश था। हजारों लाखों का हुजूम कश्मीर के सड़कों पर उतर गया। पूरी कश्मीर में मस्जिदों से घोषणा की जा रही थी "कश्मीर बनेगा पाकिस्तान"। भीड़ में खुले तौर पर बंदूके लहराई जा रही थी और नारे लग रहे थे।
"जागो जागो सुबह हो हुई, रूस ने बाजी हारी है
हिंद पे नजरतारी है, अब कश्मीर की बारी है।"
"अगर कश्मीर में रहना है तो अल्लाह हू अकबर कहना होगा
ओ जालिमों! ए काफिरों! कश्मीर हमारा छोड़ दो।"
"कश्मीर बनेगा पाकिस्तान, पंडित आदमियों के बगैर पर पंडित औरतों के साथ।"
बार-बार यह गाना मस्जिदों से चला कर, नारे लगवा कर कश्मीरी पंडितों को डराया गया। अब कश्मीर पंडितों के डर ने एक नया रूप ले लिया था। परिवारों ने महिलाओं को स्टोरों में छुपा लिया, "यह कहने की जरूरत नहीं कि जब भीड हमला करें तो खुद को आग लगा ले"। प्रमुख कश्मीरी पंडितों को पहले से ही निशाना बनाकर मारा जा रहा था। सामाजिक कार्यकर्ता टीका लाल टपलू को सरेआम दिनदहाड़े श्रीनगर में मारा गया। वकील प्रेमनाथ भट्ट की अनंतनाग क्षेत्र में हत्या की गई।
उनका कहना था कि या तो हमारे साथ मिल जाओ या मर जाओ या भाग जाओ। सरकार, बुद्धिजीवियों, निरपेक्षवादियों, देश के प्रति सद्भावना रखने वाले सबकी अंतरात्मा सोने चली गई थी। कोई भी इसके बारे में कुछ बोलने को तैयार नहीं। 19 जनवरी 1990 के बाद के दिनों में कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम शुरू हो गया और कश्मीर पंडितों पर इन अत्याचार की इंतेहा होने लगी थी।
आज तक एक भी व्यक्ति को दोषी करार नहीं दिया गया, हजारों पंडितों की हत्या और नरसंहार तो दूर की कड़ी है। किसी ने इस नरसंहार और पलायन पर कोई इस प्रकार की चिंता प्रदर्शित नही की। पंडितों के घर सुने व बंजर पड़े हैं, मंदिर अपवित्र है, सब कुछ ढहने को है।
30 साल के बाद भी जम्मू के बाहरी इलाकों में अपने ही देश के कश्मीरी पंडित शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर है। जहां उन्हें सहायता भी नहीं दी जा रही है।
'इस सब के बावजूद भी अभी उम्मीद करते हैं कि हमारे देश के कश्मीरी पंडितों के साथ इंसाफ हो।'