pratyancha written by sanjeev about casteism
पुस्तक समीक्षा

संजीव द्वारा रचित उपन्यास प्रत्यंचा जाति प्रथा के खिलाप एक रण है

पुस्तक समीक्षा


उपन्यास - प्रत्यंचा

लेखक - संजीव

प्रकाशन - वाणी प्रकाशन

कीमत - 599 रुपए


व्यक्ति एक है, ईश्वर ने सभी को समान रूप से संरचना दी है लेकिन समाज ने व्यक्ति को कई वर्ग, समुदाय, जाति आदि में बांट दिया है। समाज में भेदभाव इतना बढ़ गया है कि इनका तुलनात्मक अध्ययन अब अधिक मात्रा में होने लग गया। रंगभेद और जातिभेद के दंश इतने गहरे होते हैं कि सत्ता और ताकत मिलने पर भी व्यक्ति को चुभते रहते हैं। समाज के एक बड़े वर्ग के लिए सदियों बाद भी इनकी चुभन में कुछ खासा कमी नहीं आई है। कुछ लोग तो इस प्रकार के सामाजिक अपमान को अपनी नियति समझकर समझौता कर लेते हैं, जबकि कुछ लोग इस प्रकार के व्यवहार को षड्यंत्र समझकर इनकी जड़े खोदकर इन तक पहुंचने का प्रयास करते हैं। मराठा में कोल्हापुर के राजा, छत्रपति शाहूजी महाराज ऐसे ही एक महान शासक हुए जिन्होंने अपने शुद्र कहलाने की व्यक्तिगत त्रासदी को सामूहिक त्रासदी की तरह समझा समझा, उसे देखा और उससे पार पाने के लिए लगातार कई अथक प्रयास किए।


शाहूजी महाराज‌ के बेहद प्रभावशाली जीवन गाथा को संजीव ने अपने उपन्यास "प्रत्यंचा" में कुछ इस प्रकार दर्शाया है कि राजा बनने पर भी समाज का एक तबका महाराज से ईर्ष्या करने लग गया। सदियों के सफर में जाति प्रथा के कोढ़ को दूर करने के लिए कई समाज सुधारक तो हुए लेकिन इस त्रासदी से आम जनता को बचाने वाले प्रशासनिक और सत्ताधारी लोग कुछ मात्र ही हैं। छत्रपति शाहूजी महाराज उन्हीं कुछ मात्र लोगों में से थे जिन्होंने समाज के वंचित तबके के लोगों को प्रशासनिक कार्यों में नियुक्तियां देना आरंभ किया। उनके इस कदम का समाज पर कुछ दूरगामी असर देखने को भी मिला।


इस उपन्यास के एक वाक्य में संजीव कहते हैं राजनीतिक गुलामी से ज्यादा त्रासदी है सामाजिक गुलामी। राजनीतिक गुलामी के शत्रु को परास्त करके हराया जा सकता है क्योंकि यह व्यक्त होता है परंतु सामाजिक गुलामी बहुआयामी होती है जिसमें कोई एक व्यक्त शत्रु नहीं होता है, जिसे हरा करके समाज में आजादी और सम्मान पाया जा सके, इसलिए यह त्रासदी ज्यादा भयावह है। हमारे देश में सामाजिक गुलामी की मूल जड़ जातिप्रथा है लेकिन जातिप्रथा का कोई निश्चित सोपान नहीं है। इसलिए यह कोढ़, यह त्रासदी सदियों से चली आ रही है जिससे अब तक पार नही पाया जा सका है।


संजीव का यह उपन्यास महाराष्ट्र में जातिप्रथा का दंश झेल रही पीढ़ियों को सम्मानजनक जीवन देने के लिए अनवरत प्रयास करने वाले महानायक से हमें रूबरू करवाता है। महाराज छत्रपति शाहूजी द्वारा वंचित और नीची समझी जाने वाली जातियों को समाज की मुख्यधारा में जोड़ने का क्रांतिकारी प्रयास किया गया। उनके इस अतुलनीय प्रयासों का बहुत ही बेहद ढंग से जीवंत, वास्तविक और मार्मिक तरीके से इस उपन्यास का वर्णन किया गया है। समाज में जाति प्रथा के दंश झेलने वाली पीढ़ी समाज में इस उपन्यास का कथ्य आज भी प्रासंगिक है।

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