Book Review Pankaj Subeer
पुस्तक समीक्षा

जिन्हें जुर्म-ए-इश्क पे नाज था | Novel by Pankaj Subeer

मशहूर लेखक पंकज सुबीर द्वारा लिखा गया यह उपन्यास काफी प्रसिद्ध रहा। आज के मौजूदा दौर की कई सवालों के जवाब उनके इस उपन्यास में मिल जाएंगे। इस उपन्यास को "जिन्हें जुर्म-ए-इश्क पे नाज था" के नाम से लिखा गया।

धर्म और समाज, इंसानियत और निजी स्वार्थ, सच और झूठ, हिंसा और सद्भावना, राग और द्वेष, मोहब्बत और नफरत, विश्लेषण और कोई सहज-स्वीकार्य निष्कर्ष निकालने के प्रयास में पंकज सुबीर द्वारा यह उपन्यास लिखा गया। इस उपन्यास को लिखते हुए सुबीर के जेहन में ढेरों मूलभूत प्रश्न रहे होंगे, जो हर नए दौर में अलहदा संदर्भों से उलझ कर नए सिरे से जवाब मांगने लगते हैं।

डिटेलिंग की खासियत पंकज सुबीर की शैली रही है। कथानक को अनफोल्ड करते हुए वे हमेशा एक मुकम्मल भाव-दृश्य रचने की कोशिश करते हैं। पात्र को उसकी मनोदशा के अनुरूप हरकतें करने देते हैं और कहानी का केंद्रीय विचार तंतु साथ-साथ गूंथता चला जाता है। यहां विषय भी बेहद संवेदनशील बल्कि एकदम नाजुक और गर्म है। इसे गंभीर और सच्ची इतिहास दृष्टि के दस्ताने पहनकर सावधानी से पकड़ना होगा। 

लेखक यहां तटस्थ रहकर काम नहीं चला सकता, क्योंकि जिन सवालों से जूझना है वो ऐन समसामयिक गलियारों में नंगे घूम रहे हैं, हर किसी से बावस्ता हैं और हर आदमी अपने निजी या उधारी के जवाब लिए उत्तेजित हो ख़ुद से विपरीत ख़्याल रखने वाले से उलझने को तैयार बैठा है. यहां एक सीधा ख़तरा ये भी है कि कथानक में चलता विमर्श ऐसा न लगे कि हार चुकी मान ली गई वामपंथी विचारधारा के बही-खाते में चला जाए. मानवीय मूल्यों को राजनीति हमेशा सतही तौर पर लेती है और उनपर बहस को टालती आई है।




उपन्यास का एक रोमांचक और कसा हुआ प्लॉट है, जो दंगों की मानसिकता, खौफ़ और उसके इर्द-गिर्द रक्स करने वाले इंसानी जज़्बों का नाटकीय मगर प्रामाणिक दृश्यांकन करता है. रामेश्वर नामक केंद्रीय पात्र पूरे घटना-क्रम का संचालन करता मालूम होता है, पर वह एक व्यक्ति नहीं एक विचार है, जो सदियों से चले आ रहे तमाम उदात्त मानवीय मूल्यों का प्रतीक है. वह धर्म और दर्शन की बारीक़ मीमांसा करता है, इतिहास के क्रूर पहलुओं का भी मानवीय भाष्य करता है. वह दृढ़ है, ज़िद्दी और निर्भीक है पर आर्टिकुलेट भी है. वह बांटनेवालों की शातिराना चालों और तर्कों को समझता और उनके जवाब अपने पास रखता है. वह संवेदनहीन व्यवस्था को लेकर सीनिकल भी नहीं है, बल्कि अपने विवेकपूर्ण विचारों के बीज अपने अनुयायियों के ज़रिए वहां भी बो आने में यक़ीन करता है. लेखक उसके माध्यम से इस दौर के कठिनतम सवालों में एक पर तार्किक विवेचना कर समाधान खोजने की कोशिश में है. इस उपन्यास में वर्णित एक अवश्यम्भावी दंगे को रोकने के बेहद रोमांचक घटनाक्रम में इस समाधान की रूपरेखा की एक झलक तो मिल ही जाती है!


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Novel by Pankaj Subeer आधी-अधूरी, झूठी-सच्ची सूचनाओं और मनमानी ऐतिहासिक स्थापनाओं के इस दौर में इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि लेखक ने बहुत विस्तार से तमाम तर्कों-कुतर्कों को कुरेदा है और एक संतुलित दृष्टिकोण, एक मध्यमार्ग-सा खोज निकालने की कोशिश की है. इसके लिए लेखक ने पारम्परिक संवाद-शैली तो चुनी ही है, स्वप्न-श्रृंखलाओं का एक नायाब सामयिक संस्करण (फ़ोन पर गांधी, जिन्ना आदि से बातचीत) रचा है. इससे पाठ में प्रवाह बना रहा है और कथा-क्रम में व्यतिक्रम नहीं हुआ. कुछ आकुल करने वाले प्रश्न बिना लाग-लपेट के रखे गए हैं. कट्टरता को पूरी तरह बेनक़ाब किया गया है और दंगों के पीछे किसी के भौतिक स्वार्थ के होने की असलियत को बख़ूबी बेपर्दा किया है. मानवीय रिश्तों की मार्मिक व्याख्या, अच्छे संस्कारों की सटीक परिभाषा और नफ़रत की मानसिकता का सम्यक विश्लेषण इस उपन्यास में बड़े प्रतीकात्मक ढंग से उभरे हैं.

ऐसे विमर्श पंकज पहले भी ‘कसाब, गांधी ऐट यरवदा डॉट इन’ जैसी लम्बी कहानियों में बरत चुके हैं. मेरे जैसे पाठक के लिए उनके ‘अकाल में उत्सव’ की चुटीली व्यंग्यात्मक शैली ज़्यादा रुचती है. पर यहां लेखक का ध्येय अधिक गम्भीर और अलग सतह पर था. भाषा एकदम सीधी-सरल रखते हुये गम्भीर विमर्श को साध ले जाना पंकज की ख़ासियत है. उनके विवरणों में दृश्यात्मकता भरपूर रहती है. वे प्रसंगों में बेहद छोटे-छोटे डिटेल्स भी भर देते हैं। 


व्यक्ति के विचार विमर्श और निष्कर्ष के प्रतिबिंब के प्रतीकात्मक के लिए पंकज के गहन शोध, तार्किक दृष्टि और सहज प्रस्तुति का कायल होने से नहीं बचा जा सकता। विभाजन पर कई वर्षों से दिए जा रहे तर्कों को तोड़ मरोड़ कर उसको सुलझाने का कार्य सुबीर ने अपने इस उपन्यास में उसकी पुर्नव्याख्या की है, जो समय के लिए आवश्यक है।


ऐसे संवेदनशील विषय पर लेखन कर उसे उपन्यास में लाने के लिए हम पंकज सुबीर का धन्यवाद अदा करते हैं। 


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