All you need to know about Samudra Manthan and Maha Kumbh
कुम्भ 2021

जानिये कि क्यों हुआ था अमृत कलश के लिए देवताओं और दानवों में झगड़ा

पुराणों में प्रचलित घटना समुद्र मंथन की कहानी से आप सभी लोग वाकिफ होंगे। समुद्र मंथन एक ऐसा कार्य था जिसे देवताओं तथा असुरों द्वारा एक साथ मिलकर संपन्न किया। समुद्र से निकलने वाले अमृत के प्याले से संबंधित यह कहानी प्रचलित कुंभ मेलों से भी विशेष रूप से जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि कुंभ की शुरुआत यहीं से आरंभ हुई थी।


समुद्र मंथन हिंदू धर्म में सृष्टि की रचना को लेकर किया जाने वाला सबसे प्रचलित कार्य है। जिसे सुर और असुरों द्वारा कई सारे विरोधों के पश्चात भी साथ मिलकर करना पड़ा था। दरअसल कहा जाता है कि उस समय धरती का बहुत छोटा सा भाग जल के बाहर था। जिस पर एक नई सृष्टि का निर्माण करना कठिन था। सभी जगह पानी होने के कारण यह बड़ा कार्य सिर्फ देवताओं द्वारा किया जाना संभव नहीं था, इसके लिए असुरों को भी इसमें शामिल होना आवश्यक था। वेद पुराणों तथा शास्त्रों में इस समुद्र मंथन को लेकर कई सारी कथाएं प्रचलित हैं। हिंदू धर्म के शिव पुराण, विष्णु पुराण, भागवत पुराण, महाभारत आदि में समुद्र मंथन का जिक्र मिलता है। 


विष्णु पुराण के अनुसार समुद्र मंथन को करने के लिए किसी कारण का होना आवश्यक था इसीलिए त्रिदेव ने एक लीला रची। पुराण के अनुसार एक बार दुर्वासा ऋषि वैकुंठ लोक से प्रस्थान कर रहे थे। तो रास्ते में ऐरावत हाथी पर सवार इंद्र उन्हें दिखाई दिए। इंद्र को देखकर दुर्वासा ऋषि ने उन्हें कमल के फूलों से सुशोभित माला भेंट की, परंतु इंद्र अपने वैभव के अहंकार में इतने डूबे हुए थे कि उस माला को जमीन पर फेंक दिया। इस पर ऋषि दुर्वासा अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने इसे अपने साथ-साथ कमल के फूलों पर विराजमान होने वाली देवी महालक्ष्मी का भी अपमान समझा और उसी वक्त इंद्र को श्राप दे दिया। 


मान्यताओं के अनुसार इस श्राप के कारण इंद्र का सारा वैभव क्षीण होता गया और वह दरिद्र हो गया। राक्षसों ने भी स्वर्ग का सिंहासन इंद्र से छीन कर उस पर आधिपत्य कर लिया। अब इंद्र भगवान विष्णु के पास मदद मांगने के लिए गए। भगवान ने इंद्र को समुद्र मंथन कर अमृत निकालने का सुझाव दिया। इस प्रकार समुद्र मंथन की शुरुआत हुई। 


समुद्र मंथन के लिए विष्णु भगवान ने कछुए का अवतार लिया जिसे 'कुर्मावतार' कहा जाता है। उन्होंने मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर टिका कर रख लिया  ताकि वह समुद्र के अंदर डूब ना जाए और उसे मथनी बनाया। इसके साथ नागों के राजा वासुकीनाग को नेति (रस्सी या सूत्र) बनाया गया। यह समुद्र मंथन क्षीर सागर यानी कि आज के हिंद महासागर में संपन्न हुआ। इस मंथन से 14 रत्नों की प्राप्ति हुई थी जिन्हें देवताओं तथा असुरों ने बांट लिया था। 


समुद्र मंथन का कुंभ से संबंध


इस समुद्र मंथन के लिए एक अन्य कथा कुंभ से संबंधित है। जिसके अनुसार कश्यप ऋषि का विवाह दिति और अदिति दो कन्याओं के साथ संपन्न हुआ था। जो दक्ष प्रजापति की पुत्री थी। इसके अनुसार अदिति से हुई संतानों को देवता तथा दिति से हुई संतानों को दैत्य कहा जाता है। समुद्र मंथन के पश्चात 13 रत्नों की प्राप्ति होने के बाद 14वां एक अमृत का कलश था।


इस अमृत कलश को प्राप्त करने के लिए देवताओं और दानवों के बीच भयंकर युद्ध हो गया क्योंकि दोनों ही अमृत को पीकर हमेशा के लिए अमर होना चाहते थे। इस पर देवराज इंद्र द्वारा अपने पुत्र को संकेत से अमृत कलश को लेकर भागने के लिए कहा गया। जब इन्द्र  का पुत्र जयंत कलश को लेकर भागा तो दैत्यों ने उसका पीछा किया। 12 दिनों तक उनका संघर्ष जारी रहा। इसमें बृहस्पति ने असुरों के हाथों में कलश को जाने से बचाया। सूर्य ने कलश को टूटने से उसकी रक्षा की तथा चंद्रमा द्वारा उसे छलकने से बचाया गया। परंतु इस पर भी युद्ध की उथल-पुुुथल के कारण उस अमृत की बूंदें छलक कर धरती पर गिर गई। 


यह 4  बूूदें जिन स्थानों पर गिरी वे हैं गंगा तट हरिद्वार, त्रिवेणी संगम प्रयागराज, क्षिप्रा नदी उज्जैन और गोदावरी तट नासिक। इन चार स्थानों पर ही कुंभ मेले लगते हैं। कहा जाता है कि यह कुंभ पर्व इन चार स्थानों पर अमृत की प्राप्ति की कामना हेतु मनाया जाता है। इस प्रकार कुंभ पर्व का समुद्र मंथन से गहरा संबंध पता चलता है। 


समुद्र मंथन से मिले 14 रत्नों का के पीछे छिपा है जीवन का वास्तविक अर्थ


संसार में होने वाले हर कार्य के पीछे कोई ना कोई गूढ अर्थ छिपा होता है। पौराणिक कहानियों में धर्म ग्रंथों में हर एक कथा के पीछे एक अन्य रहस्य होता है। जो मनुष्य जाति के कल्याण के लिए किया जाता है। इस प्रकार समुद्र मंथन से मिलने वाले 14 रत्नों की प्राप्ति में भी कुछ रहस्य छिपे हुए हैं। 


1- कालकूट विष


समुद्र मंथन से सबसे पहले कालकूट विष की प्राप्ति हुई। सृष्टि को विष से होने वाले विनाश से बचाने के लिए भगवान शिव ने इसे ग्रहण किया और वे नीलकंठ कहलाए। इसका अर्थ हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि यदि हमें अमृत (भगवान) को पाने की इच्छा है तो सबसे पहले अपने मन को समुद्र की तरह मथना आवश्यक है। इस पर सबसे पहले मन में नकारात्मक भाव आते हैं। यही बुरे विचार और नकारात्मक भाव विष का रूप हैं, जिन्हें सबसे पहले अपने विचारों से हटाकर आगे बढ़ना आवश्यक है। 


2- कामधेनु गाय


इस मंथन में दूसरे स्थान पर कामधेनु गाय की प्राप्ति होती है। यह गाय यज्ञ की सामग्री प्रदान करने वाली थी। इसीलिए इस गाय को ऋषियों ने ग्रहण कर लिया। कामधेनु मन की निर्मलता का प्रतीक मानी जाती है। जिस प्रकार विष के बाद कामधेनु की प्राप्ति हुई उसी प्रकार नकारात्मक विचारों को अपने मन से निकालने के बाद मन निर्मल हो जाता है और इन विचारों से मुक्त होकर ईश्वर तक पहुंचने का रास्ता भी सरल हो जाता है। 


3- उच्चेश्रवा घोड़ा


यह घोड़ा सफेद रंग का था। इसे असुरों ने ग्रहण कर लिया। अर्थ की दृष्टि से देखा जाए तो यह घोड़ा मन को गति देने का प्रतीक है। जिस प्रकार घोड़ा अत्यंत तेज दौड़ कर अपनी गति को प्रदर्शित करता है उसी प्रकार मन की गति भी अत्यधिक तेज मानी गई है इसीलिए सबसे पहले अपने मन की गति पर विराम लगाना आवश्यक है। तभी ईश्वर की प्राप्ति संभव होगी। 


4- ऐरावत हाथी 


चौथे स्थान पर ऐरावत हाथी की प्राप्ति समुद्र मंथन से हुई थी। इस हाथी के चार बड़े दांत थे तथा यह इतना अधिक चमकदार था कि इसके सामने कैलाश पर्वत भी फीका नजर आ रहा था। इस हाथी को देवराज इंद्र द्वारा ग्रहण कर लिया गया। ऐरावत हाथी बुद्धि और उसके दाँत वासना, क्रोध और मोह के प्रतीक हैं। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि यदि हमारी बुद्धि सही दिशा में कार्यरत हो तो हम इन चारों प्रकार के विकारों पर आसानी से विजय पा सकते हैं। जिससे हम अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर रहें। 


5- कौस्तुभ मणि


इस मणि को भगवान विष्णु द्वारा अपने हृदय पर धारण किया गया। यह मणि मन में पैदा होने वाली भक्ति का प्रतीक है। जब लोभ मोह जैसे द्वेष से मन को मुक्ति मिल जाती है तो मन में भक्ति शेष रहती है। इस भक्ति के माध्यम से परमात्मा से मिलन अवश्य संभव है। 


6- कल्पवृक्ष 


कल्पवृक्ष को पुराणों में कल्पद्रुम या कल्पतरु के नाम से भी जाना जाता है। यह इच्छाएं पूरी करने वाला वृक्ष है। इस लक्ष्य को इंद्र द्वारा सुंदर कानन (स्वर्ग) में स्थापित किया गया। प्रतीकात्मक रूप से देखा जाए तो यह वृक्ष हमारी इच्छाओं का प्रतीक है अर्थात् परमात्मा को प्राप्त करने के लिए सबसे पहले सभी प्रकार की इच्छाएं त्यागनी आवश्यक है। तभी स्वच्छ और निश्चल मन से परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है। 


7- रंभा अप्सरा


समुद्र मंथन से सातवें स्थान पर रंभा अप्सरा का उदय हुआ। रंभा सुंदर वस्त्रों और आभूषणों को पहने हुए थी। यह अप्सरा देवताओं के पास गई। प्रतीक के रूप मेें अप्सरा मनुष्य के मन में छुपी हुई वासनाएं हैं जो किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति में मन को विचलित करने का कार्य करती हैं। इन भावनाओं पर नियंत्रण आवश्यक है तभी लक्ष्य या परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। 


8- महालक्ष्मी 


समुद्र मंथन से महालक्ष्मी का उदय होता है। दोनों असुर तथा देवता लक्ष्मी की प्राप्ति करना चाहते थे परंतु लक्ष्मी जी ने स्वयं विष्णु का वरण किया। लक्ष्मी जी धन और वैभव का प्रतीक हैं। संसार के सभी ऐश्वर्य और सुख लक्ष्मी से प्राप्त होते हैं परंतु जब भी हमारा ध्यान लक्ष्य की ओर होता है तो यह सांसारिक सुख बीच में आकर ध्यान भटकाने की लगातार कोशिश करते हैं। इसलिए इन्हें अपने मन से हटा कर ध्यान केवल लक्ष्य या फिर ईश्वर भक्ति में ही लगाना चाहिए। 


9- वारुणी देवी 


वारूणी का अर्थ है 'मदिरा' जो कि असुरों द्वारा ग्रहण कर ली गई। यह बुराई का प्रतीक है। जो परमात्मा को पाने की दिशा में सबसे बड़ा रोड़ा है। यह बुराई नशे की तरह है जो समाज और शरीर के लिए हर तरह से हानिकारक हैैैै इसलिए  इसे छोड़ना अत्यंत आवश्यक है। 


10- चंद्रमा


समुद्र मंथन में चंद्रमा की प्राप्ति हुई। इस चंद्रमा को भगवान शिव द्वारा अपने मस्तिष्क पर धारण किया गया। चंद्रमा मन में बसने वाली शीतलता का प्रतीक है जो कि मन में बुरे विचारों आदि  को आने से रोकता है। ऐसे शीतल मन वाले व्यक्ति को लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। 


11- पारिजात वृक्ष


यह वृक्ष एक विशेष प्रकार का वृक्ष है। इसे छूने मात्र से ही सारी थकान मिट जाती है। इसके पुष्प देवताओं को अत्यंत प्रिय है। यह वृक्ष भी देवताओं द्वारा ग्रहण किया गया। इसका प्रतीकात्मक अर्थ लक्ष्य से पहले मिलने वाली शांति से है अर्थात जब आप अपने लक्ष्य की इतने निकट होते हैं तो आपके मन में होने वाली दुविधा और थकान मात्र शांति के एहसास से ही समाप्त हो जाती है। 


12- पांचजन्य शंख 


इस शंख की प्राप्ति 12वें स्थान पर हुई। इसे भगवान विष्णु द्वारा ग्रहण कर लिया गया। इसकी ध्वनि अत्यंत शुभ मानी जाती है। यह शंख विजय का  द्योतक है इसका अर्थ है परमात्मा की प्राप्ति के एक कदम दूर मन के खालीपन को ईश्वरीय स्वर से भर देना अंत में विजय पाने जैसा ही है। 


13- देव धन्वंतरि  


अब समुद्र मंथन से भगवान धन्वंतरि अपने हाथ में अमृत का कलश लिए उत्पन्न हुए। भगवान धन्वंतरि विष्णु के अंश कहे जाते हैं। श्याम वर्ण के भगवान धन्वंतरि  देवों के वैद्य कहलाते हैं तथा उनका निवास स्थान अमरावती है। भगवान धन्वंतरी द्वारा आयुर्वेद बनाया गया और उन्होंने ऋषि-मुनियों को लोक कल्याण के लिए इसका ज्ञान भी दिया। इस प्रकार भगवान धन्वंतरि स्वस्थ और निरोगी काया तथा निर्मल मन के प्रतीक हैं जो लक्ष्य की प्राप्ति हेतु मुख्य तत्व समझे जा सकते हैं। 


14-अमृत 


धन्वंतरी देव के हाथ में अमृत कलश भी समुद्र मंथन से प्राप्त हुआ। अमृत को देखकर दैत्य और देवताओं में युद्ध छिड़ गया परंतु भगवान विष्णु द्वारा मोहिनी रूप धारण करते ही दोनों पक्ष शांत हुए और मोहनी द्वारा देवताओं को अमृत पान करवाया गया। तभी असुर राहु ने इस छल को भापकर अमृत पान कर लिया जिससे क्रोधित होकर भगवान विष्णु ने अपने चक्र से उसका शीश धड़ से अलग कर दिया। इस राक्षस के शरीर के दोनों भागों को राहु और केतु नाम से जाना जाता है। 14वें स्थान पर प्राप्त होने वाले इस अमृत का प्रतीकात्मक अर्थ 5 कर्मेंद्रियों, पांचों ज्ञानेंद्रियों तथा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार है। जिन पर नियंत्रण होना ही परमात्मा  को  प्राप्त करना है।

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