अरुंधति रॉय का जन्म 24 नवंबर 1961 में मेघालय की राजधानी शिलांग में हुआ था ।
इसके पश्चात अरुंधति अपनी मां के साथ केरल चली गई और वहीं से उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी करी ।
इसके पश्चात 1984 में अरुंधति को 'मैसीसाहब' नामक फिल्म में जनजातिय लड़की का किरदार निभाने को मिला ,उन्होंने यह किरदार बखूबी निभाया ,परंतु उसके बाद उन्होंने फिल्म में अपना करियर ना बनाकर किताबों और उपन्यास में अपनी रुचि दिखाई ।
अरुंधति की किताबों और उपन्यासों ने पूरे संसार में उनके विचारों का जादू बिखेर दिया, इनको 1997 में 'द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स ' के लिए "बुकर अवार्ड" से सम्मानित किया गया ।
अरुंधति लेखिका होने के साथ-साथ एक समाज सेविका भी है। अरुंधति की पुस्तकें ,उपन्यास हमेशा चर्चा में रहती हैं ,क्योंकि वह भारत के उन पहलुओं पर अपनी पुस्तक लिखती हैं जो काफी ज्यादा संवेदनशील मुद्दे से घिरे होते हैं ।
जैसा आपको पता है कि, भारत पहले से ही एक समृद्ध राष्ट्र था ,और आज भी यह स्वतंत्र और समृद्धि से भरपूर तो है ,परंतु जाति व्यवस्था और अन्य कई कारणों से यह आज भी बस एक विकासशील देश ही है।
आप इस बुक को अमेज़न पर भी देख सकते हैं :
भारत में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होने के साथ-साथ जाति व्यवस्था उससे कई गुना अधिक मजबूत होने लगी है।
आज इस व्यवस्था की जड़ों ने भारत को भीतर ही भीतर खोखला कर दिया है , इन असमानताओ से निपटने के लिए देश के कई राजनेताओं क्रांतिकारियों ने अपना योगदान दिया है, इनमें से अहम नाम है -बीआर अंबेडकर व महात्मा गांधी।
महात्मा गांधी जी की भारत में देवता समान छवि को बी आर अंबेडकर जी द्वारा चुनौती दी गई थी, परंतु इनका विरोध कुलीन वर्गों के द्वारा दबा दिया गया।
क्या आप जानते हैं ,ऐसा क्यों हुआ ?
ऐसे ही विचारों और प्रश्नों से प्रेरित होकर मसूर उपन्यासकार अरुंधति रॉय द्वारा एक पुस्तक लिखी गई।" एक था डॉक्टर ,एक था संत" Book by Arundhati Roy इस पुस्तक में गांधी तथा अंबेडकर की एक अलग ही छवि प्रस्तुत की गई है, इस पुस्तक की छपाई राजकमल प्रकाशन द्वारा की गई ।
इस पुस्तक के अनुसार 1923 में मुंबई की विधान परिषद द्वारा यह अनुमति दी गई कि ,सारे अछूत सार्वजनिक स्थानो जैसे- तालाबों को, स्कूलों ,अदालतों का उपयोग कर सकते हैं, ऐसे ही एक महाद कस्बे में भी नगर पालिका थी , जिसके द्वारा वहां पर उपस्थित तालाब को अछूतों के द्वारा इस्तेमाल करने की सहमति दे दी गई।
परंतु इस अनुमति के बावजूद भी ऐसा साहस किसी अछूत में न था , क्योंकि कुलीन वर्ग यह कार्य अछूतों को करने ही नहीं देता ।
इसके 4 वर्ष बाद 1927 में अछूतों ने महाद में दो दिवसीय सम्मेलन का आयोजन करने का निर्णय लिया। इसके लिए धन की व्यवस्था जनता के पैसों से की गई। एक अप्रकाशित पांडुलिपि के अनुसार 'उस समय कुल 40 गांव में से हर एक ग्राम से ₹3 एक नाटक के द्वारा ₹23 कमाए गए थे जो कि इस सम्मेलन के लिए दान स्वरूप दिए गए '।
इस सम्मेलन में लगभग 3,000 अछूतों के अलावा कुलीन वर्ग के कुछ लोगों ने भी भाग लिया ।
इस सम्मेलन के प्रमुख समर्थकों में से एक थे 'वीर सावरकर ' जो इसी समय जेल से रिहा हुए थे,
इस सम्मेलन में बीआर अंबेडकर जी द्वारा अध्यक्षता की गई , इसमें एक जुलूस निकाला गया जिसमें एक जुलूस में चार- चार व्यक्ति कतार में महाद के तालाब की ओर आगे बढ़े ,तथा वहां से पानी पीने लगे , ऐसे दृश्य को देखते हुए पहले तो कुलीन तथा विशेष अधिकार पाने वाले व्यक्ति सन्न रह गए ,लेकिन कुछ ही समय बाद अछूतों के इस कृत्य पर कुलीन वर्ग के लोगों ने हमला कर दिया ,और इस हमले के रूप में लाठियां पत्थरबाजी वह हर कोई सामान जो उनके हाथ में आता वह अछूतों के ऊपर बरसाने लगे और तब तक मारते रहे जब तक देह लाल ना हो जाए ।
अछूत बुरी तरह घायल हो गए परंतु अंबेडकर जी के कहने पर यहां पर अहिंसा को अपनाया गया, इसलिए अछूतों द्वारा इसका जवाब किसी भी तरह की हिंसात्मक कार्यवाही से नहीं दिया गया।
इसके पश्चात यहां पर कुलीन वर्ग द्वारा अफवाह फैलाई गई कि , अछूत स्थानीय मंदिर वीरेश्वर में जबरन प्रवेश करने जा रहे हैं, यह जानकर कुलीन वर्ग के अन्य लोगों ने विरोध करना शुरू कर दिया, और जितने भी उनको अछूत लोग उनको देखते उतना को उन्होंने मारना शुरू कर दिया।
इस घटना के चलते अंबेडकर को थाने में एक रात के लिए रुकना पड़ा, इस हिंसा के शांत होने के बाद किसी ने गांधी जी के पत्र लिखा था कि, महाद में ऐसी- ऐसी घटना घटी है ,गांधी जी ने वह पत्र टाइम्स ऑफ इंडिया में छपवाया , और उन्होंने अंबेडकर जी की तारीफ करते हुए कहा कि मैं उनके साथ हूं और इस अस्पृश्यता की लड़ाई में दलित वर्ग ने हिंसा का विरोध अहिंसा से किया और अहिंसा अस्पृश्यता को जड़ से मिटा देगी ।
दलित वर्ग द्वारा कुएं में पानी पीने की इस घटना को कुलीन वर्ग ने बड़ी घृणा भरी नजरों से देखा, और महान पंडित को बुलाकर महाद कस्बे के उस तालाब का दही ,दूध, घी ,गोमूत्र और गोबर से शुद्धिकरण किया गया।
परंतु अभी तक अछूतों के दिल में सुलगती आग शांत नहीं हुई थी। 1927 कि जून में अंबेडकर द्वारा स्थापित पाक्षिक बहिष्कृत भारत में इस आंदोलन को आगे ले जाने के लिए तैयार लोगों के नाम मांगे गए ।
इसे भी पढ़े: Gunning for the Godman-The True Story Behind Asaram Bapu's Conviction
विशेषाधिकार प्राप्त लोगों द्वारा अछूतों के तालाब इस्तेमाल के निषेध की अनुमति ली गई। इसी कारण अछूतों ने एक बार फिर से पहली बार की तरह आंदोलन करने का मन बना लिया और फिर महाद में इकट्ठा हो गए ।इस समय अंबेडकर का गांधी से मोहभंग नहीं हुआ था ,तथा गांधी द्वारा पहले आंदोलन पर अछूतों द्वारा जवाबी हिंसा नहीं करने की तारीफ की गई इस कारण दूसरे सम्मेलन में मंच पर गांधी जी की तस्वीर लगाई गई और कहीं ना कहीं इसके पीछे का कारण यह भी था कि गांधी जी की तस्वीर लगाने से लोगों की सहानुभूति अधिक प्राप्त होगी। परंतु अंबेडकर जी को कहीं ना कहीं लगता था कि गांधीजी सिर्फ हिंदू और मुस्लिम एकता पर ज्यादा बल देते हैं उनका अस्पृश्यता पर इतना जोर नहीं है, फिर भी अंबेडकर जी गांधी जी के लिए हीन भावना नहीं रखते थे। और उन्होंने इस सम्मेलन में गांधी जी की तस्वीर भी लगाई थी
इस महाद सम्मेलन में अंबेडकर जी ने अपने समर्थकों के द्वारा मनुस्मृति की प्रतिलिपि को जलाया था ,परंतु मनुस्मृति की प्रतिलिपि को जलाने के लिए पंडित की व्यवस्था की गई ,जिस ने मनुस्मृति को जलाया ।
इसके पश्चात वहां पर अंबेडकर जी ने एक झकझोर कर रख देने वाला भाषण दिया, जिसमें उन्होंने कहा की "स्वर्ण जातियां अछूतों को इस तालाब का पानी पीने से इसलिए नहीं रोक रहे हैं कि, इससे तालाब दूषित होगा , बल्कि इसलिए उन्हें रोका जा रहा है कि, वह इस बात को स्वीकार ही नहीं करना चाहते कि नीच जाति के लोग उनके बराबर हो जाए"
'इस भाषण के मुताबिक इस भाषण का मकसद यह नहीं था कि , इस झील का पानी किसी को अमर बना देगा बल्कि इस भाषण का मुख्य उद्देश्य था कि ,अछूत हर उस व्यक्ति के समान है जो सवर्ण जाति में पैदा हुआ है। यहां पर जाति व्यवस्था का पूर्णतया विरोध किया गया और मानवता धर्म को श्रेष्ठ बताया गया था।
इस प्रकार अरुंधति रॉय ने इस पुस्तक के माध्यम से यह दावा किया है कि, अंबेडकर की राजनीति के इस प्रथम आंदोलन में जिसे महाद आंदोलन या यहां सत्याग्रह के नाम से भी जाना जाता है, इसमें वीर सावरकर जी ने भी भाग लिया था , और अपनी भूमिका इस आंदोलन में प्रदर्शित की थी।
यह आंदोलन प्रसिद्ध नहीं हो पाया देश में गांधी जी के द्वारा नमक आंदोलन उग्र रूप से खेल फेल रहा था इसलिए महाद सत्याग्रह आंदोलन प्रचलित नहीं हो पाया।