Book Written by Sushil Rakesh
पुस्तक समीक्षा

स्मृतियों के स्वर्णिम दिन | Book Written by Sushil Rakesh

"स्मृतियों के स्वर्णिम" दिन कवि सुशील राकेश द्वारा रचित एक ऐतिहासिक साहित्य दस्तावेज है इसमें सिर्फ स्मृतियां ही नहीं अपितु साहित्यिक गतिविधियां में होने वाले राजनीतिक हस्तक्षेप को आज के साहित्यिक आयोजन, पुरस्कार, सम्मेलनों के संदर्भ में दशा- दिशा को उस दौर की रोशनी में समझने का तथ्यात्मक समय काल भी दिया गया है। Book Written by Sushil Rakesh

हिंदी साहित्य में शुमार सुशील राकेश का जन्म "साहित्य का मक्का" कहे जाने वाले शहर इलाहाबाद के 'सतीचौरा' मोहल्ले में हुआ था। इनके द्वारा अनेक काव्य संग्रह, कहानियां व संस्मरण, पुस्तकें और पत्र- पत्रिकाएं लिखी गई हैं। 2015 में आशीष प्रकाशन द्वारा सुशील राकेश का एक संस्मरण प्रकाशित किया गया आइए जानते हैं क्या लिखा है इस संस्मरण "स्मृतियों के स्वर्णिम दिन" में-

स्मृतियों के स्वर्णिम दिन में व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया प्रेरणा स्रोत, साहित्यिक सृजनशीलता, साहित्यिक प्रतिबद्धता और पक्षधरता को पाठकों के समक्ष स्वतंत्र लेखन के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।

"न भूतों न भविष्यति" के आलेख में निराला और राजनीतिक लोगों के मध्य मतभेद हो जाता है कहा जाता है कि साहित्य और राजनीति में एकता और संघर्ष बहुत पुराना है। जिसे कवि सुशील रहस्योधित करते हैं। इस प्रकार के एक मतभेद का वर्णन इस प्रकार है- जब राजर्षि अपने उद्घाटन भाषण में लेखकों को सुझाव दे रहे थे तो इस पर निराला जी ने खड़े होकर कहा कि क्या अब राजनीतिज्ञ साहित्यकारों को  बातलाएंगे कि हम किस प्रकार का साहित्य रचें।

इस विवाद पर प्रसिद्ध उपन्यासकार प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल होनी चाहिए।  Book Written by Sushil Rakesh

स्मृतियों के  कोमल क्षणों में सुमित्रानंदन  पंत आलेख में सुशील राकेश ने उन दिनों की याद को ताजा कर दिया जब साहित्य, समाज और साहित्यकारों के योगदान को संकलित करने और उन्हें प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया था ।

राकेश ने पंत जी के सानिध्य में रहकर उन अनुभूतियों को उजागर किया जिसमें सुशील राकेश का रचनात्मक व्यक्तित्व उभर कर सामने आता है "वह विशाल से विशालतर व्यक्तित्व वाला हिमाद्री का शिष्य मेरे शैशव काल से मुग्धता, ममता और तन्मयता में सर्वप्रथम हर्षोलफुल होकर आया है वह आज भी उसी तरह आकर्षण बनकर पुष्पों की गंध की तरह महक रहा है"।


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सुशील राकेश ने पंडित इलाचंद जोशी को याद करते हुए उनके कुछ ऐसे अनसुलझे पहलुओं को उजागर किया है जिससे किसी लेखक का निर्माण, विकास प्रक्रिया एवं दृष्टिकोण का निर्माण होता है। उनके अनुसार साहित्य चेतना का निर्माण और व्यक्तित्व का निर्माण दोनों एक साथ चलने वाली प्रक्रिया है।

महादेवी वर्मा के "पर्व स्नान" के बारे में सुशील राकेश का कहना है कि यह संस्मरण एक नए प्रकार की कथा शिल्प का निर्माण करने में सफल रहा। उनके "पर्व स्नान" को पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है कि महादेवी वर्मा स्वयं उपस्थित होकर पाठकों से सीधे संवाद करती है। सुशील कहते हैं कि जब- जब वह मेरी स्मृतियों में आती है तो कोई न कोई रचना करते हुए वो उल्फुल मुद्रा में नया संदेश देकर सबको प्रेरित करती हैं। वे कहते हैं कि उनका व्यक्तित्व कितना उज्जवल है इसका वर्णन करना मेरी लेखनी के लिए असंभव सा प्रतीत होता है।

"बांध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?

पथ की बाधा बनेंगे, तितलियों के पर रंगीले,

विश्व का क्रंदन भुला देगी, मधुप की मधुर गुनगुन

क्या डूबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस गीले,

तू न अपनी छोह को अपने लिए कारा बनाना 

जाग तुझको दूर जाना"।

शमशेर भी सुशील राकेश की समकालीन रहे हैं। शमशेर के बारे में लिखते हुए लेखक कहता है कि हम किसी कविता का वास्तविक आधार तब करते हैं जब उसकी अच्छाई बुराई दोनों तटस्थ भाव से वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखें।

डॉ धर्मवीर भारती के बारे में सुशील राकेश का कहना है की धर्मवीर को उन्होंने केवल चिट्ठी पत्री ही लिखी लेकिन वह उनके पत्राचार से भी काफी प्रभावित हुए इसलिए कवि कहते हैं कि मैं आज भी नहीं समझ पा रहा हूं कि जो वाणी और व्यवहार में भारती जी के साम्य था ,वह प्रोत्साहन करने की कला मुझे किसी संपादक में क्यों नहीं दिखाई दे रही है।  Book Written by Sushil Rakesh

डॉक्टर कृष्ण कांत दुबे से हुई बातचीत में कविता 'इंकलाब' का जिक्र करते हुए राकेश द्वारा नए साहित्यकारों के बारे में अपने विचार रखते हुए कहा गया है कि युवा साहित्यकारों के साहित्य में नवीन चिंतन और देश व समाज की समस्याओं से जूझने का जज्बा मिलता है।

यह  संस्मरण एक ऐतिहासिक साहित्यिक धरोहर है इसलिए इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए इसमें आजादी के बाद का साहित्य और खासकर उत्तर प्रदेश के हिंदी साहित्य के उद्भव और विकास की संरचना को भी पाठक वर्ग सरलता से समझ सकते हैं  लेखक का योगदान  साहित्यिक समाज के लिए  अनुपम और अतुलनीय है जिसे युगों युगों तक याद रखा जाएगा यह साहित्यिक दस्तावेज यह उम्मीद जगाई रखता है कि दुनिया विकल्पहीन नहीं है।

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